मंगलवार, 11 सितंबर 2012

सरकारी केमिस्ट क्यों नहीं हैं?


आशुतोष कुमार सिंह

स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन निवास करता है। यह बात हम बचपन से सुनते आ रहे हैं। सही भी है। जब तक शरीर स्वस्थ नहीं होगा, आप कुछ बेहतर कर नहीं पायेंगे। अगर आप अपनी हुनर का इस्तेमाल अस्वस्थता के कारण नहीं कर पा रहे हैं, तो कहीं न कही इससे राष्ट्र को क्षति पहुंचती है। शायद यही कारण है कि मन को धारण करने वाली इस काया को निरोगी बनाये रखने पर सदियों से हमारे पूर्वज ध्यान देते रहे हैं।
दुर्भाग्य से आज हिन्दुस्तान का स्वास्थ्य खराब होता जा रहा है। इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं। महत्वपूर्ण कारण यह है कि भारत में व्यवस्थित एवं कारगर स्वास्थ्य नीति ही नहीं हैं। बीच-बीच में सरकार नीतियां बनाती-बिगाड़ती रही हैं, लेकिन वे कारगर सिद्ध नहीं हो पायी हैं। ऐसे में यह सोचनीय प्रश्न है कि भारत की जनता को कैसे स्वस्थ रखा जाए।
मानव स्वभावतः स्वस्थ रहना चाहता है। कई बार परिस्थितियां ऐसी बनती है वह अपने शरीर को स्वस्थ नहीं रख पाता। भारत जैसे देश में लोगों को बीमार करने वाली और लंबे समय तक उन्हें बीमार बनाये रखने वाली परिस्थितियों की लम्बी-चौड़ी लिस्ट है। लेकिन इन सभी सूचियों में एक कॉमन कारण है अर्थाभाव। यानि भारत के लोग धनाभाव में अपना ईलाज व्यवस्थित तरीके से नहीं करवा 
पाते हैं। 
देश में मरीजों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। उसी अनुपात में लोगों का हेल्थ बजट भी बढता जा रहा है। दूसरे मद में तो आदमी अपनी बजट में कटौती कर भी सकता है लेकिन हेल्थ ऐसा मसला है जहां पर जीवन-मरण का प्रश्न रहता है, ऐसे में हेल्थ के नाम पर जितना खर्च करना पड़ता है, वह करना ही पड़ता है। इसके लिए चाहे घर बेचना पड़े, देह बेचना पड़े अथवा किसी की गुलामी ही क्यों न करनी पड़े, सबकुछ करने के लिए आदमी तैयार रहता है।
यह बात भारत सरकार भी मानती है कि यहां के लोगों की आर्थिक स्थिति बहुत खराब है। इस बात को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार देश को स्वस्थ रखने के लिए कई तरह की हेल्थ स्कीमे चलाती रहती हैं। बावजूद इसके परिणाम ढाक के तीन पात वाले ही हैं। ऐसी स्थिति में भारत की पूरी हेल्थकेयर नीति ही कटघरे में आती हुई प्रतीत हो रही है।
पिछले दिनों नई मीडिया में और अब तो मेन स्ट्रीम मीडिया में भी भारत की पूरी हेल्थकेयर नीति को लेकर बहस चल पड़ी है। फेसबुक के माध्यम से ‘कंट्रोल एम.एम.आर.पी’ ( कंट्रोल मेडिसिन मैक्सिमम रिटेल प्राइस ) नामक एक नेशनल कैंपेन चलाया जा रहा है। जिसमें देश के विचारवान लोग हेल्थ नीति पर खुल कर चर्चा कर रहे हैं। इन चर्चाओं के परिणाम स्वरूप कुछ चौकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। मसलन दवा कंपनियां अपनी एम.आर.पी लागत मूल्य से 1100 प्रतिशत ज्यादा तक लिख रही हैं। इस बात की पुष्टी भारत सरकार का कार्पोरेट मंत्रालय भी कर चुका है। दवा कंपनियां ब्रांड के नाम पर मरीजों को लूट रही हैं। जैसे एक साल्ट से निर्मित दवा को कोई कंपनी 50 में बेच रही है तो कोई 100 में। दवाइयों की क्वालिटी संदिग्ध हैं। दूसरे देशों में बैन हो चुकी दवाइयां भारत में धड़ल्ले से बेची जा रही हैं। डाक्टर अनावश्यक जांच लिखते हैं। डॉक्टर घुस खाकर दवाइयां लिखते हैं। दवा दुकानदार जेनरिक के नाम पर लोगों को लूट रहे हैं। सरकारी अस्पतालों में दवाइयां उपलब्ध नहीं होती। इस तरह के सैकड़ों तथ्य सामने आ रहे हैं। इन तथ्यों को और गहराई से जानने की जरूरत है।
सबसे परेशान करने वाला तथ्य यह है कि सरकार ने इन सभी समस्याओं को दूर करने के लिए राष्ट्रीय औषध मूल्य नियंत्रण प्राधीकरण नामक एक स्वतंत्र नियामक बना रखा है। जिसकी जिम्मेदारी है कि वह देश में बेची जा रही दवाइयों के मूल्यों को नियंत्रित करे। इसके लिए बहुत सुन्दर कानून भी है। दवा कंपनियों द्वारा मनमाने तरीके से दवाइयों के रेट तय करना इस बात की ओर इशारा कर रहा है कि यह प्राधीकरण अपने कार्यों को करने में पूरी तरह असफल हो चुका है।
इन सभी चर्चाओं को समझने के बाद एक और महत्वपूर्ण सवाल कौंध रहा है, देश में सरकारी डॉक्टर हैं, सरकारी अस्पताल हैं...तो उसी अनुपात में सरकारी केमिस्ट क्यों नहीं हैं?
( लेखक कंट्रोल एम.एम.आर.पी कैंपेन चला रही संस्था प्रतिभा जननी सेवा संस्थान के नेशनल को-आर्डिनेटर व युवा पत्रकार हैं )

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